देखा तो याद आया बचपन! हाल ही में जगजीत सिंह की एक गज़ल कागज की कश्ती‚ बारीस का पानी के शब्द जहन में याद आ गये‚ जब कल लोकरंग में बचपन के खेल और खिलौने की प्रदर्शनी देखी। इस प्रदर्शनी में कागज‚ कपड़ा‚ लकड़ी को खिलौने के रूप में प्रदर्शित किया गया‚ ये सब जो कभी हम बचपन में खेला करते थे। आज इलेक्ट्रोनिक और प्लास्टिक युग में कहीं न कहीं ये खिलौने गुम से हो गये हैंॽ बचपन को याद दिलाती ये सुंदर तस्वीरें कही अनजानी सी हो गई हैं। खिलौने के बिना बचपन आधूरा है‚ खिलौने ना केवल बच्चों के लिए मनोरंजन का साधन है पर इनसे बच्चों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आज यह खिलौने बदल गये हैं‚ खेलने के साधन में भी बदलाव आया है। रस्सी कूद‚ हमचो‚ दौड़ की जगह इलेक्ट्रोनिक खिलौने ने अपनी जगह बना ली है। आज शहरो में तो खेल के लिए स्थान भी बहुत कम रह गये हैं। खिलौने में झाँकता यह बचपन कहीं न कहीं बदल सा गया है‚ वो कागज की कश्ती‚ मिट्टी के खिलौने कही गुम से हो गये। वैसे तो हर बच्चों को खेलने का अधिकार है तथा हर देश को अपने देश के बच्चों के लिए इस अधिकार को दिलाने के लिए सम्पूर्ण कदम उठाना चाहिए। खेल और खिलौने न केवल मनोरंजन‚ शिक्षा का माध्यम है पर इनसे बच्चों को मानसिक ऊर्जा भी प्राप्त होती है। कही न कही लुप्त होते खेल और खिलौने की लगह आज टी़ वी‚ वीडियो‚ गेमस‚ मोबाईल आदि ने ले ली है। इस इलेक्ट्रोनिंक युग में बच्चों को इन नये तंत्रों से नई तकनीकी जानकारी तो मिलती है‚ बच्चे कुछ नया सीखते है‚ परन्तु कहीं एक कौने से दिल कहता है कि वो पुराने खिलौने व बचपन ज्यादा सुखमय था। आज भी यह एक तमन्ना दिल में है‚ मैं जब मिट्टी में मिल जाऊ‚ताकि खिलौना बन किसी एक छोटे से उदास चेहरे की मुस्कान बन पाऊ।
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