Friday, August 30, 2013

उज़्मा दिलाती है नवजात को पहला हक

किसी बच्चे का जन्म लेना न केवल उसके मां-बाप के लिए बल्कि पूरे परिवार के लिए खुशियों की सौगात होता है। इस खुशी के मौके पर शिशु के पहले हक की ओर कई परिवारों का ध्यान नहीं जाता एवं कई उसके अधिकारों का हनन कर देते हैं। पर शिशु को पहला हक दिलाने के प्रति छिंदवाड़ा जिला अस्पताल में स्तनपान परामर्शदात्री सुश्री उज्मा पूरी तरह मुस्तैद रहती हैं। वह कहती हैं‚ “मैंने पिछले छह महीने में 100 से ज्यादा परिवारों को जन्म के तुरंत बाद नवजात शिशु को सालों से चली आ रही परंपरा के तहत शहद देने से रोका है। शिशु को मां का पहला दूध पिलवाने में मैं सफल रही हूं‚ जो कि उनका हक है।” मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के जिला अस्पताल के महिला वार्ड में अपने नवजात शिशु के साथ लेटी महिलाओं के बीच एक बेड से दूसरे बेड की तरफ जाते हुए जब सुश्री उज्मा यह कहती है‚ तो उनके चेहरे पर अपने काम की सफलता का आत्मविश्वास साफ झलकता है। वह अपनी चिर-परिचित मुस्कुराहट के साथ शिशु की मां एवं रिश्तेदारों को बधाई देती हैं‚ पर साथ ही यह सवाल भी करती हैं कि क्या नवजात को मां का दूध पिलाना शुरू कर दियाॽ इनमें से कुछ वे महिलाएं भी होती हैं‚ जो प्रसव पूर्व जांच के लिए अस्पताल में आने के समय सुश्री उज्मा से मिल चुकी होती हैं और स्तनपान एवं नवजात के लिए मां के पहले दूध में मौजूद कोलेस्ट्रम की महत्ता को जान चुकी होती हैं। इन सबके बावजूद हर बेड के पास जाकर वह कोलोस्ट्रम के जीवनरक्षक महत्ता के संदेश को बार-बार कहना नहीं भूलतीं और ‘शहद नहीं’‚ ‘घुट्टी नहीं’‚ ‘गाय का दूध नहीं’ जैसे छोटे-छोटे संदेश वह लगातार दोहराती रहती हैं। वह मुस्कराते हुए नवजात की मां एवं रिश्तेदार से कहती हैं‚ यदि आपको कोई भी समस्या हो तो चिंता न करें‚ मैं पास में ही हूं। यदि किसी भी रिश्तेदार के चेहरे पर वह व्याकुलता देखती हैं तो अपने कदम को वहीं रोक लेती हैं एवं दोस्ताने माहौल में एक बार उनके साथ स्तनपान‚ उसके मिथक आदि पर विमर्श करती हैं। आगे बढ़ने से पहले वह उन्हें पूरी तरह संतुष्ट कर देती है। इसके साथ ही वह उनका नाम भी अपने नोटबुक में लिख लेती हैं ताकि बाद में भी उनकी सहायता की जा सके। सुश्री उज़्मा अर्शी कुरैशी उन 50 स्तनपान परामर्शदात्रियों में से एक हैं‚ जिन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने जिला अस्पतालों में नियुक्त किया है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से दक्षिण-पश्चिम में लगभग 250 किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा जिला अस्पताल में सुश्री उज़्मा पदस्थ हैं। सुश्री उज़्मा वहीं पढ़ी-लिखी हैं एवं उन्होंने खाद्य एवं पोषण में स्नातकोत्तर करने के बाद कुछ समय तक विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं भी दी हैं। छह माह पूर्व ही उनकी नियुक्ति स्तनपान परामर्शदात्री के रूप में हुई है। उनके कई रिश्तेदार चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं‚ इसलिए सुश्री उज़्मा इस नौकरी से गौरवान्वित महसूस करती हैं। इस नौकरी में नवजात के अधिकार एवं माताओं में छोटे बच्चों को अपना दूध पिलाने की प्रथा को बढ़ावा देना है‚ गर्भवती महिलाओं को स्तनपान के फायदे के बारे में बताना है एवं प्रसव के बाद शिशु को स्तनपान कराने में सहयोग की जरूरत वाली माताओं को सहयोग करना है। सुश्री उज़्मा की नौकरी बहुत साधारण काम वाली दिखती है‚ पर वास्तव में यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। सुश्री उज़्मा को न केवल बच्चे की माता‚ उसके पिता‚ दादी‚ नानी एवं अन्य रिश्तेदारों से बात करनी पड़ती है‚ बल्कि यह सुनिश्चित भी करना पड़ता है कि वे जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान कराने से लेकर छह माह तक सिर्फ स्तनपान (पानी भी नहीं) कराने की महत्ता एवं इसे व्यवहार में लाने का सही संदेश ले रहे हैं। सुश्री उज़्मा कहती हैं‚ “यह कुछ मामलों में आसान होता है‚ पर कई बार स्तनपान को लेकर गर्भवती एवं उसके परिवार के कई सवाल होते हैं। स्तनपान की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता पर स्तनपान‚ खासतौर से छह माह तक बच्चे को सिर्फ मां का दूध पिलाने पानी भी नहीं की बात स्वीकार कराना चुनौतीपूर्ण है।” वह लोगों की बात एवं सवाल साझा करते हुए बताती हैं कि माता एवं उनके रिश्तेदार कहते हैं‚‘‘गर्मी एवं बारिश के दिनों में बच्चों को पानी की जरूरत पड़ती है’‚ ‘यदि बच्चे को डायरिया हो जाए तो क्या करेंगे’‚ ‘यदि मां के दूध के साथ बच्चे को घुट्टी पिलाएंगे तो बच्चा मजबूत होगा’ आदि। वह बताती हैं कि ‘शहद चखना’ (जन्म के तुरंत बाद शिशु की जीभ के नीचे शहद रखने की प्रथा) की प्रथा को तोड़ने की जरूरत है। सुश्री उज़्मा उत्सहित होकर कहती हैं‚ “मैं उन्हें न केवल मां के प्रथम दूध में मौजूद कोलोस्ट्रम एवं स्तनपान के बारे में बताती हूं‚ जो कि जीवनरक्षक है बल्कि यह भी बताती हूं कि यह संक्रमण से बचने के लिए बच्चे को ताकतवर बनाता है एवं मां के स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर होता है। महिला के पति को समझाना अन्य की तुलना में कई गुणा ज्यादा महत्वपूर्ण होता है‚ क्योंकि मां के दूध के बदले वे ही बाहर से गाय का दूध लाते हैं। यदि वे एक बार समझ गए तो वे अपनी पत्नी को सहयोग कर सकते हैं‚ जिससे कि वह छह माह तक बच्चे को सिर्फ स्तनपान कराए और दूसरी कोई खाद्य तथा पेय सामग्री न दे। यह समय मुश्किल भरा होता है इसलिए यहां यह सलाह कारगर सिद्ध होती है‚ जिसमें शिशु की मां के साथ मौजूद रिश्तेदारों को बताती हूं कि गाय का दूध खरीदना पड़ता है, फिर उसे पैसे खर्च करके गर्म करना पड़ता है एवं वह शिशु के लिए फायदेमंद भी नहीं होता एवं बच्चा फिर बीमार पड़े तो उसमें भी खर्च करना पड़ता है तो क्यों नहीं मुफ्त में उपलब्ध मां का कीमती दूध बच्चे को पिलाते, जो कि उसके लिए जीवनरक्षक और पोषक है।” वह इस बात को भी साझा करती हैं कि सीजेरियन ऑपरेशन में मां को सहयोग की जरूरत होती है। ऐसे में वार्ड में ज्यादा समय देना पड़ता है एवं वार्ड की नर्स के सहयोग से उसकी सास या मां को उत्साहित करते हैं कि वे नई मां को शिशु को दूध पिलाने के लिए सहयोग करें। सुश्री उज़्मा इस नौकरी में आने के बाद पिछले छह महीने से गौरवान्वित महसूस करती है। वह न केवल हजारों परिवार तक स्तनपान के महत्वपूर्ण संदेश को पहुंचा चुकी हैं बल्कि कोलोस्ट्रम वाला गाढ़ा पीला मां का दूध एक घंटे के अंदर सैकड़ों शिशु को पिलाकर छह माह तक सिर्फ स्तनपान कराना सुनिश्चित करा चुकी हैं। सुश्री उज़्मा का सभी मांओं के लिए सशक्त संदेश है‚ “अगर आप अपने बच्चे को स्तनपान नहीं कराती हैं‚ तो आप मां होने का प्रथम कर्त्तव्य पूरा नहीं करती हैं।” - अनिल गुलाटी

Saturday, August 24, 2013

खिलौने और बचपन

देखा तो याद आया बचपन! हाल ही में जगजीत सिंह की एक गज़ल कागज की कश्ती‚ बारीस का पानी के शब्द जहन में याद आ गये‚ जब कल लोकरंग में बचपन के खेल और खिलौने की प्रदर्शनी देखी। इस प्रदर्शनी में कागज‚ कपड़ा‚ लकड़ी को खिलौने के रूप में प्रदर्शित किया गया‚ ये सब जो कभी हम बचपन में खेला करते थे। आज इलेक्ट्रोनिक और प्लास्टिक युग में कहीं न कहीं ये खिलौने गुम से हो गये हैंॽ बचपन को याद दिलाती ये सुंदर तस्वीरें कही अनजानी सी हो गई हैं। खिलौने के बिना बचपन आधूरा है‚ खिलौने ना केवल बच्चों के लिए मनोरंजन का साधन है पर इनसे बच्चों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आज यह खिलौने बदल गये हैं‚ खेलने के साधन में भी बदलाव आया है। रस्सी कूद‚ हमचो‚ दौड़ की जगह इलेक्ट्रोनिक खिलौने ने अपनी जगह बना ली है। आज शहरो में तो खेल के लिए स्थान भी बहुत कम रह गये हैं। खिलौने में झाँकता यह बचपन कहीं न कहीं बदल सा गया है‚ वो कागज की कश्ती‚ मिट्टी के खिलौने कही गुम से हो गये। वैसे तो हर बच्चों को खेलने का अधिकार है तथा हर देश को अपने देश के बच्चों के लिए इस अधिकार को दिलाने के लिए सम्पूर्ण कदम उठाना चाहिए। खेल और खिलौने न केवल मनोरंजन‚ शिक्षा का माध्यम है पर इनसे बच्चों को मानसिक ऊर्जा भी प्राप्त होती है। कही न कही लुप्त होते खेल और खिलौने की लगह आज टी़ वी‚ वीडियो‚ गेमस‚ मोबाईल आदि ने ले ली है। इस इलेक्ट्रोनिंक युग में बच्चों को इन नये तंत्रों से नई तकनीकी जानकारी तो मिलती है‚ बच्चे कुछ नया सीखते है‚ परन्तु कहीं एक कौने से दिल कहता है कि वो पुराने खिलौने व बचपन ज्यादा सुखमय था। आज भी यह एक तमन्ना दिल में है‚ मैं जब मिट्टी में मिल जाऊ‚ताकि खिलौना बन किसी एक छोटे से उदास चेहरे की मुस्कान बन पाऊ।

क्यों लड़कियों ने छोड़ी पढ़ाई

गुना ज़िला के बाचों की कुछ आवाज़ें.... ऊमरी। एक लड़की सोनम ने एक साल से स्कूल जाना छोड़ दिया। क्योंकि उसके पिता ने उसे स्कूल जाने से मना कर दिया। उसकी माँ की मृत्यु हो गई इसलिए उसके पापा ने कहा घर का काम करो। लेकिन उसे पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। लेकिन उसके पापा ने मना कर दिया इसलिए वो पढ़ने नहीं जाती। ऐसी बहुत सी लड़कियाँ काम की वजह से स्कूल छोड़ देती हैं। कुछ लड़किया तो चौथी–पाँचवीं कक्षा से स्कूल छोड़ देती है। लड़कियों के पापा उन्हें कहते है कि तुम अब बड़ी हो गई हो इसलिये तुमको स्कूल नहीं जाना चाहिए। - संजू‚ 7वीं‚ शा॰मा॰वि॰‚ ऊमरी बमौरी बुजुर्ग। हमारे गांव के लोग लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा देते हैं। उनसे खेतों और घरों में काम करवाते हैं। कई लोग लड़कियों की कम उम्र में शादी कर देते हैं। इसलिये भी उनका स्कूल छूट जाता है। हमारे गांव में एक लड़की है उसने कक्षा दूसरी तक पढ़ाई की फिर स्कूल आना छोड़ दिया। हमारे गांव में दो और लड़कियाँ है। उनके माता–पिता ने उनका स्कूल में नाम लिखवाया था। बड़ी बहिन ने कक्षा तीसरी तक पढ़ाई की। फिर उसकी माँ की मृत्यु हो गई। उसने स्कूल आना छोड़ दिया और वो घर में ही काम करने लगी। दो वर्ष बाद उसके पिता ने उसकी शादी कर दी और वो अपने ससुराल चली गई। एक और लड़की है जिसके माता–पिता नहीं है। वो खेतों में काम करती है और घर का खर्चा चलाती है। -पार्वती लोधा, शा॰ नवीन मा॰ विद्यालय‚ बमौरी बुजुर्ग

Tuesday, August 20, 2013

Adolescent speak : Responsibility towards society - 'Active citizenship'

‘We need to say no to child marriage and no to violence against girls and women’, Kanchan Gaur, a class eight student of Government High school in Bhopal says while discussions on what does active citizenship means to her. She is part of school forum facilitated by Madhya Pradesh’s Child Rights Observatory. Raman a student of class seventh, and a part of the forum, is differently abled but is passionate about working for humanity and says we need to look beyond ourselves, share resources, be it small or big and contribute to society. He also wants to drive home the message of cleanliness and hygiene. While Raj Lodhi a student of calls ninth, says that ‘today one can express his thoughts openly and do whatever one wants to do but need is to look into the issue what we are doing to our environment and impact of pollution’. He drew a sketch to explain his point of view on the impact of pollution’. Similar discussion on active citizenship was held with group of young girls in Shivpuri district of Madhya Pradesh. Hardika and Chandini, adolescent girls who are part of this group said that ‘one must help other in need.’ ‘Any responsible and active citizen will always help people around him in whatever way possible. People should not be completely absorbed in their own lives rather they should realize they have duties towards everyone else around them. If we don’t help people around us some day when we need help no one will reach out for us.’ Pranjal, another adolescent girl shares that active citizenship means that one has responsibility towards family and society. Citizens need to be aware of their rights and duties. When they see something wrong they should raise a collective voice against it. If necessary they form groups and work collectively for a cause.

Children voices express concern over gender discrimination

I even dance in my dreams, I love dancing, it is my passion, but my parents and brother don't like my passion, they say I would not be able to dance after Class 10. But why? These is the question of Tammana, a girl presently in tenth grade in a Bhopal school. Varhsa another girl studying in eighth grade questions "why there is difference between girl and boy child". She argues: "When my brother comes to house from outside my mom asks me to give him water and food. But will that be same when I come from outside? Will my brother be asked to help me with food and water?" These are voices of girls who are part of school forums in Bhopal city. Naveen, Khushi, Deepti and Anjana are also members of school forums and by writing poems, stories have brought out the issue of child labour, impact of poverty on children, environment and also reflecting about new things they are learning in school. It is not only gender discrimination children do raise voices on issues which they feel matter, like environment cleanliness, hygiene, punishment but gender issues do come in as strong voices and which show the silent existence of gender discrimination which exists.